रविवार, 23 अक्तूबर 2016

तद्धित-प्रत्ययाः

!!!---: तद्धित-प्रत्ययाः :---!!!
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अध्येताओ !!! आज हम आपको दैनिक प्रयोग में आने वाले कुछ तद्धित-प्रत्ययों की जानकारी देंगे । आशा है कि आपको इससे लाभ होगा ।

तद्धित-प्रत्यय धातु से नहीं होता, अपितु यह शब्दों से होता है । शब्द दो प्रकार के होते हैंः---(१.) स्त्री-प्रत्ययान्त शब्द , (२.) प्रातिपदिक शब्द ।

प्रातिपदिक चार प्रकार के होते हैंः----(१.) अर्थवान् (अव्युत्पन्न) शब्द---डित्थ, कपित्थ, (२.) कृत्प्रत्ययान्त-शब्द--कर्त्ता, कारक, कार्य, (३.) तद्धित-प्रत्ययान्त शब्द---शैव, मनुष्य, धनवान्, (४.) समस्त (समास-युक्त) शब्द--राजपुरुषः, उपनगरम्, पीताम्बरः ।

इन स्त्री-प्रत्ययान्त शब्दों और चारों प्रकार के प्रातिपदिक शब्दों से तद्धित प्रत्यय होते हैं ----ङ्याप्प्रातिपदिकात्--४.१.१

स्त्री प्रत्यय कुल सात होते हैं---टाप्, डाप्, चाप्, ङीप्, ङीष्, ङीन्, ति । इन प्रत्ययों पर पृथक् पोस्ट में विचार करेंगे ।

तद्धित प्रत्ययों से बने शब्द विशेषण होते हैं, अतः इनका तीनों लिङ्गों में प्रयोग होता है ।

तद्धित प्रत्यय सैकडों हैं । कुछ तद्धित प्रत्यय यहाँ प्रस्तुत हैः---

(१.) मतुबर्थ प्रत्यय
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मतुप् प्रत्यय का दैनिक जीवन में बहुत प्रयोग होता है । आइए इसका विश्लेषण करें---

मतुप् प्रत्यय के अर्थ में जो प्रत्यय होते हैें, उन्हें मतुबर्थ प्रत्यय कहते हैं ।

(क) मतुप् का "मत्" या "वत्" शेष रहता है । उ और प् हट जाते हैं ।
(ख) इसके दो अर्थ होते हैं---(१.) तस्य अस्ति इति (उसका है) । (२.) तस्मिन्नस्ति इति (उसमें हैं)---तदस्यास्त्यस्मिन्निति मतुप्----५.२.९४

इसके अतिरिक्त भिन्न अर्थों में भी मतुप् होता है---
(१.) भूमा (बहुतायत) गोमान् (बहुत गौओं वाला
(२.) निन्दा---कुष्ठवान् (कोढ वाला),
(३.) प्रशंसा---मातृमान्---प्रशंसनीय माला वाला,
(४.) नित्ययोग (संयुक्त रहना)---क्षीरिणः वृक्षाः---सदा दूध से युक्त रहने वाले वृक्ष,
(५.) अतिशायने----उदरिणी कन्या ---बडे पेट वाली कन्या,
(६.) संसर्ग---दण्डी---दण्ड वाला.
(७.) अस्ति-विवक्षा (अस्तित्व) ---धनवान् ।


(ग) यदि शब्द के अन्त में स् हो, अ या आ हो, सभी वर्गों के प्रथम चार वर्णों में से कोई वर्ण हो तो मतुप् के "मत्" के स्थान पर "वत्" शेष रहता है ।

यथा---यशस्+ मतुप्= यशस्वान्
रूप+ मतुप्= रूपवान्
श्रद्धा+ मतुप्= श्रद्धावान्
किम्+ मतुप्= किंवान्

(घ) शेष बचे शब्दों (इकारान्त) से "मत" शेष रहता है ।
यथा---शक्ति+मतुप्= शक्तिमान्


(ङ) वाक्य प्रयोग---

(१.) शक्तिमान् जनः रक्षति सर्वम् ।
(२.) गुणवान् जनः यशः प्राप्नोति ।
(३.) बुद्धिमान् नरः विचारशीलः भवति ।
(४.) धनवान् नरः दानेन शोभते ।
(५.) श्रद्धावान् छात्रः लभते ज्ञानम् ।
(६.) इयं रूपवती कन्या अस्ति ।


(च) पुल्लिंग में इसका रूप "भवत्" के अनुसार , स्त्रीलिंग में गौरी के समान और नपुंसकलिंग में "जगत्" के अनुसार रूप चलेंगे ।

(२.) इनि-प्रत्यय
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(क) इनि का इन् शेष रहता है ।

(ख) यह भी मतुबर्थ प्रत्यय है । अतः इसके वही अर्थ हैं , जो ऊपर दिखाएँ हैं ।

(ग) उदाहरणः----
दान+इनि = दानी (दानिनी, दानि)
विवेक+इनि =विवेकी (विवेकिनी, विवेकि)
सुख+ इनि = सुखी (सुखिनी, सुखि)
प्राण+ इनि = प्राणी (प्राणिनी, प्राणि)
देह+ इनि = देही (देहिनी, देहि)
क्रोध+ इनि = क्रोधी (क्रोधिनी, क्रोधि)

वाक्य----
अभिमानी मानं लभते ।
विज्ञानिनः सदा सम्मान्याः भवन्ति ।
लोभी शान्तिं न प्रोप्नोति ।
दानिनः धन्याः लोके ।
क्रोधिनः विवेकः नश्यति ।

किं कुलेन विशालेन विद्याहीनस्य देहिनः ।
विनोदी जनः सर्वप्रियः भवति ।
सर्वे भवन्तु सुखिनः ।
व्यवसायिनी इयं बाला ।

बुद्धिमान् सर्वत्र पूज्यते ।
बलवती हि आशा ।
उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मीः ।
गुणिनां गुणाः पूजास्थानं भवति ।
नैतिकी शिक्षा आवश्यकी ।


(३.) ठक् (इक) प्रत्यय
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(क) ठक् के स्थान में इक प्रत्यय होता है ।

(ख) यह प्रत्यय भी संज्ञा शब्दों के साथ मिलकर विशेषण बनाता है ।

(ग) इसके तीनों लिंगों में रूप चलते हैं ।

(घ) इनका अकेले प्रयोग कभी नहीं होता ।

(ङ) शब्द के आदि स्वर में वृद्धि हो जाती है ।

(१.) अ और आ को आ हो जाता हैः---
उदा---
सप्ताह+ इक = साप्ताहिक ।
साहित्य+इक = साहित्यिक ।

(२.) इ, ई, ए को ऐ हो जाता है ।
उदा---
दिन+ इक = दैनिक
नीति+ इक = नैतिक
वेद+ इक = वैदिक

(३.) उ, ऊ, ओ को औ हो जाता है ।
उदा---
उद्योग+ इक = औद्योगिक,
मूल+ इक = मौलिक
लोक + इक = लौकिक

(४.) ऋ को आर् हो जाता है ।
उदा---
वृष+ इक = वार्षिक

(च) वाक्यानि---
मनुष्यः सामाजिकः प्राणी अस्ति ।
पर्यावरण-रक्षणम्" अस्माकं नैतिकम् कर्त्तव्यम् अस्ति ।
अद्यत्वे औद्योगकः विकास सर्वत्र दृश्यते ।
विद्यया लौकिकी अलौकिकी च उन्नतिः भवति ।
मम गृहे माङ्गलिकः कार्यक्रमः सम्पत्स्यते ।

मन्दिरे धार्मिकः उत्सवः भवति ।
अहं वैदिकः विद्वान् अस्मि ।
पौराणिकः मङ्गलाचरणं करोति ।
दिल्याम् अनेकानि ऐतिहासिकानि स्थानानि सन्ति ।
भारतस्य भौगोलिकी स्थितिः विचित्रा अस्ति ।
सम्प्रति देशस्य आर्धिकी स्थितिः सन्तोषप्रदा अस्ति ।
अस्माकं विद्यालय़े साप्ताहिकः अवकाशः रविवासरे भवति ।

अयं काल्पनिकः उपन्यासः देवकीनन्दनखत्रिणा लिखितः ।
अस्माकं पुस्तकालये अनेकाः साहित्यिकाः पत्रिकाः आयान्ति ।
औद्योगिकेन विकासेन पर्यावरणं प्रदूष्यते ।
वार्षिकायां परीक्षायां बालकेन "पर्यावरणं" विषय़म् अवलम्ब्य निबन्धः लिखितः ।
दैनिकं कार्यम् मया सम्पन्नम् ।
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बुधवार, 19 अक्तूबर 2016

लौकिक छन्द-परिचय

!!!---: लौकिक छन्द परिचय :---!!!
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छन्दः---संस्कृत में रचना प्रायः दो प्रकार की होती है---गद्य और पद्य ।

छन्द-रहित रचना को "गद्य" कहते हैं और छन्दोबद्ध रचना को "पद्य" ।

जो रचना अक्षर, मात्रा, गति, यति आदि के नियमों से युक्त होती है, उसे "छन्द" कहते हैं ।

जिन ग्रन्थों में छन्दों के स्वरूप तथा प्रकार आदि का विवेचन रहता है, उन्हें "छन्दःशास्त्र" कहते हैं ।

वर्ण या अक्षरः----
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छन्दःशास्त्र की दृष्टि से केवल व्यंजन (क्, ख् आदि) अक्षर या वर्ण नहीं कहलाते । अकेला स्वर या व्यंजन-सहित स्वर "अक्षर" कहलाता है । "आ", "का", और "काम्" में छन्दःशास्त्र की दृष्टि से से एक ही अक्षर है, क्योंकि उनमें स्वर तो केवल एक "आ" ही है । छन्द में अक्षर गिनते समय व्यंजनों की ओर ध्यान नहीं दिया जाता ।

गुरु-लघु----
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ह्रस्व अक्षरों (अ, इ, उ, ऋ, लृ) को छन्दःशास्त्र में "लघु" कहते हैं और दीर्घ-अक्षरों (आ, ई, ऊ, ऋृ, ए. ऐ, ओ, औ) को "गुरु" ।

इसी प्रकार क, कि आदि लघु अक्षर हैं और का, कौ आदि गुरु ।

छन्दःशास्त्र में निम्नलिखित को "गुरु" माना गया हैः-----

"सानुस्वारश्च दीर्घश्च विसर्गी च गुरुर्भवेत् ।
वर्णः संयोगपूर्वश्च तथा पादान्तगोSपि वा ।।"

अर्थः----अनुस्वारयुक्त, दीर्घ, विसर्गयुक्त और संयुक्त अक्षरों से पूर्व वर्ण "गुरु" होता है ।

छन्द के पाद या चरण का अन्तिम वर्ण आवश्यकतानुसार लघु या गुरु मान लिया जाता है ।

इस परिभाषा के अनुसार "कंस" में "कं" , "काल" में "का", "दुःख" में "दुः" और "युक्त" में "यु" गुरु अक्षर है ।

छन्द के चरणों की लम्बाई और गति को ठीक रखने के लिए अक्षरों के गुरु-लघु के भेद को सम्यक् हृदयंगम कर लेना चाहिए ।

गुरु का चिह्न "S" और लघु का चिह्न "।" है ।

गणः----
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छन्दःशास्त्र के तीन-तीन अक्षरों के समूह को "गण" कहा गया है । उन गणों के नाम, स्वरूप तथा उदाहरणों को समझ लें---

(१.) मगण--म---तीनों अक्षर गुरु---SSS----मान्धाता, विद्यार्थी ।

(२.) नगण---न---तीनों अक्षर लघु---।।।---निगम, सरक ।

(३.) भगण---भ---प्रथम अक्षर गुरु---S।।----भारत, कृत्रिम ।

(४.) यगण---य----प्रथम अक्षर लघु----।SS---यशोदा, सुमित्रा ।

(५.) जगण---ज----मध्य अक्षर गुरु----।S।-----जिगीषु, जवान,

(६.) रगण----र----मध्य अक्षर लघु----S।S-----राधिका, राक्षसी ।

(७.) सगण----स---अन्तिम अक्षर गुरु---।।S----सविता, कमला ।

(८.) तगण----त----अन्तिम अक्षर लघु---SS।-----तारेश, आकाश ।

गणों को याद रखने के लिए इस श्लोक को याद कर लें---

"मस्त्रिगुरुस्त्रिलघुश्च नकारो,
भादिगुरुः, पुनरादिलघुर्यः ।
जो गुरुमध्यगतो, रलमध्यः,
सोSन्तगुरुः, कथितोSन्तलघुस्तः ।।"

अर्थः---मगण में तीनों गुरु ,
नगण में तीनों लघु,
भगण में आदि अक्षर गुरु,
यगण में आदि आदि लघु,
जगण में मध्यम गुरु,
रगण में मध्यम लघु,
सगण में अन्तिम गुरु और


तगण में अन्तिम लघु होता है ।
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